कभी जब ख़ामोश ख़ुद के साथ वक़्त गुज़ारती हूँ तो सोचतीं हूँ। ज़िन्दगी अपने ही मस्त अन्दाज़ में चल रही हैं। जो उसके नज़रिए से सही हैं वो वही कर रही हैं। कभी मेरे लिए भी नहीं सोचती हैं। आज कल मेरी ज़िन्दगी मुझसे थोड़ी ख़फ़ा सी हैं। सोचती हूँ ज़िन्दगी को शाम की चाय पर बुलाऊँ। चाय की चुस्कीयों के साथ अपने सवाल भी उससे पूछती जाऊँ...
आख़िर जब लगता हैं, मैं तुम्हें समझ गयी हूँ तुम बदल क्यों जाती हो???
जब भी तुम्हारे लिए कुछ अच्छा करने की सोचती हूँ, तुम ना जाने क्या सोचकर सब कुछ ख़राब कर आती हो???
क्या ज़रूरी हैं तुम हर बार, हर बात पर मुझे सबक़ दो। हर मुझे तुमसे अलग सोचने पर मजबूर कर दो।क्या तुम्हें नहीं लगता तुम मेरी ज़िन्दगी हो...
हम एक दूसरे से जुड़े हैं। तुम हर अपना अच्छा बुरा कैसे सोच लेती हो। तुम्हारे रूठने की वजह भी तो मुझे समझ नहीं आती...
एक दम से अनजानी सी बन कर आगे बढ़ जाती हो। शामों के ख़ाली होने का ग़म हैं या फिर सुबह की ओस को ना छू पाने की चुभन....
क्यों लगता हैं तुम्हें किसी ख़ास का होना ज़रूरी हैं, क्यों तुम्हें किसी की अनजाने की तलाश हैं...
तुम मेरे लिए ख़ास हो क्या इतना काफ़ी नहीं, क्यों भीड़ में खो जाना चाहती हों...
ऐसा क्या हैं, जो तुम मुझसे छुपा किसी अजनबी को बताना चाहती हों...
क्यों ख़ुद हार कर इस दुनिया से मुझे अंधेरे में छुपाना चाहती हों। शायद सवाल कुछ ज़्यादा हैं...
एक मुलाक़ात के लिए लेकिन ऐसे बिना जवाब दिए क्यों जाना चाहती हों???
चाय के कप के मेरे ये चंद सवाल हैं। वैसे बुलाया हैं,मैंने उसको मुलाक़ात के लिए जाने मेरी बात समझेंगी भी या नहीं। आख़िर मेरी ज़िन्दगी हैं मुझ जैसी ही है। इतना आसानी से शायद ना माने थोड़ा कोशिश में करती हूँ। थोड़ा कोशिश आप करिए। कभी आपसे टकरा जाए रास्ते में तो कहिएगा मुझसे मिलतीं हुई जाए।
आख़िर जब लगता हैं, मैं तुम्हें समझ गयी हूँ तुम बदल क्यों जाती हो???
जब भी तुम्हारे लिए कुछ अच्छा करने की सोचती हूँ, तुम ना जाने क्या सोचकर सब कुछ ख़राब कर आती हो???
क्या ज़रूरी हैं तुम हर बार, हर बात पर मुझे सबक़ दो। हर मुझे तुमसे अलग सोचने पर मजबूर कर दो।क्या तुम्हें नहीं लगता तुम मेरी ज़िन्दगी हो...
हम एक दूसरे से जुड़े हैं। तुम हर अपना अच्छा बुरा कैसे सोच लेती हो। तुम्हारे रूठने की वजह भी तो मुझे समझ नहीं आती...
एक दम से अनजानी सी बन कर आगे बढ़ जाती हो। शामों के ख़ाली होने का ग़म हैं या फिर सुबह की ओस को ना छू पाने की चुभन....
क्यों लगता हैं तुम्हें किसी ख़ास का होना ज़रूरी हैं, क्यों तुम्हें किसी की अनजाने की तलाश हैं...
तुम मेरे लिए ख़ास हो क्या इतना काफ़ी नहीं, क्यों भीड़ में खो जाना चाहती हों...
ऐसा क्या हैं, जो तुम मुझसे छुपा किसी अजनबी को बताना चाहती हों...
क्यों ख़ुद हार कर इस दुनिया से मुझे अंधेरे में छुपाना चाहती हों। शायद सवाल कुछ ज़्यादा हैं...
एक मुलाक़ात के लिए लेकिन ऐसे बिना जवाब दिए क्यों जाना चाहती हों???
चाय के कप के मेरे ये चंद सवाल हैं। वैसे बुलाया हैं,मैंने उसको मुलाक़ात के लिए जाने मेरी बात समझेंगी भी या नहीं। आख़िर मेरी ज़िन्दगी हैं मुझ जैसी ही है। इतना आसानी से शायद ना माने थोड़ा कोशिश में करती हूँ। थोड़ा कोशिश आप करिए। कभी आपसे टकरा जाए रास्ते में तो कहिएगा मुझसे मिलतीं हुई जाए।
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