एक दीवाना सा लड़का हैं
थोड़ा शायना थोड़ा शायराना सा लगता हैं
यूँ तो वाक़िफ़ नहीं मैं उससे
फिर भी बातों से जाना पहचाना लगता हैं
अक्सर अपने शब्दों में छुपाकर
मुझसे उलझें से सवाल करता हैं।
इश्क़ ना करने की वजह पूछता है
कभी इश्क़ पर लिखने को मना करता है।
ना जाने कैसे मोहब्बत हो गयी है तुमसे
तुम्हें चुपके से पढ़ने की आदत हो गयी मुझे
चाहता हूँ तुम्हें क्या ये ख़ता हैं मेरी
अगर ख़ता ये हैं तो क्या सज़ा हैं मेरी
क्यों तुम मुझे चाहती नहीं
क्यों मेरी लिखीं मोहब्बत में ख़ुद को पढ़ पाती नहीं
कहती हो मोहब्बत खुदा हैं
तो क्यों सजदे में सर को झुकाती नहीं।
तलाशती हो जिस इश्क़ को तुम सारे जहाँ में
लिखकर भी जिसे तुम समझ पातीं नहीं
वो तलाश कभी तो मुझ पर रुके
लेकिन तुम्हारी नज़र मुझ तक आती नहीं।
तुम ही बता दो कैसे करूँ इश्क़ तुमसे
जो मेरे जज़्बात तुम को भी समझ आए कभी
हर बार इनकार पर होता है दर्द कितना
खुदा ना करे वो इनकार तुम्हारी ज़िन्दगी में आए कभी।।
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